राधा तू बड़भागिनी कौन तपस्या कीन, कथाओं की शान है यह प्रसंग

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राधा तू बड़भागिनी कौन तपस्या कीन ।
तीन लोक तारनतरन सो तेरे आधीन ।।

संसार में श्रीराधा जैसी भाग्यवान कोई स्त्री नहीं है, जिनके पति तीनों लोकों के स्वामी श्रीकृष्ण सदैव उनके कन्धे पर गलबहियां डाले रहते हैं । जहां भी किशोरी जी (श्रीराधा) जाती हैं, वे उनके अधीन होकर संग-संग जाते हैं ।

श्रीकृष्ण के वामभाग से प्रकट हुई श्रीराधा कठिन तप, प्रेम और सेवा करके ही श्रीकृष्ण के प्रेम की स्वामिनी बनीं और उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय हुई हैं ।

राधा श्रीकृष्ण की भक्ता, उपासिका-आराधिका व प्रेमिका हैं । वे श्रीकृष्ण की आह्लादिनी-शक्ति और उनके प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हैं । लेकिन श्रीराधा को यह गौरव कैसे प्राप्त हुआ, इससे सम्बन्धित एक प्रसंग ब्रह्मवैवर्त पुराण में मिलता है ।

कथा प्रसंग

पूर्वकाल में श्रीराधा ने शतश्रृंग पर्वत पर एक सहस्त्र दिव्य युगों तक निराहार रहकर तपस्या की । इससे वे अत्यन्त दुर्बल हो गयीं । भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि श्रीराधा चन्द्रमा की एक कला के समान अत्यन्त कृश हो गयीं हैं, अब इनके शरीर में सांस का चलना भी बंद हो गया है । तब भगवान श्रीकृष्ण करुणा से द्रवित होकर श्रीराधा को छाती से लगाकर फूट-फूट कर रोने लगे ।

भगवान श्रीकृष्ण ने दिया श्रीराधा को वरदान

भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीराधा को वर देते हुए कहा–’राधे ! तुम्हारा स्थान मेरे वक्ष:स्थल पर है, तुम यहीं रहो । मुझमें तुम्हारी अविचल प्रेम-भक्ति हो । सौभाग्य, मान, प्रेम, गौरव की दृष्टि से तुम मेरे लिए सबसे श्रेष्ठ और सर्वाधिक प्रियतमा बनी रहो । संसार की समस्त युवतियों में तुम्हारा सबसे ऊंचा स्थान है । तुम सबसे अधिक महत्व व गौरव प्राप्त करो । मैं सदा तुम्हारे गुण गाऊंगा, पूजा करूंगा । तुम सदा मुझे अपने अधीन समझो । मैं तुम्हारी प्रत्येक आज्ञा का पालन करने के लिए बाध्य रहूंगा ।’

आगे भगवान श्रीकृष्ण कहते है–’जैसे आभूषण शरीर की शोभा है, उसी प्रकार तुम मेरी शोभा हो । राधा के बिना मैं नित्य ही शोभाहीन केवल निरा कृष्ण (काला-कलूटा) रहता हूँ, पर राधा का संग मिलते ही सुशोभित होकर ‘श्री’ सहित कृष्ण अर्थात् ‘श्रीकृष्ण’ बन जाता हूँ । राधा के बिना मैं क्रियाहीन और शक्तिशून्य रहता हूँ; पर राधा का संग मिलते ही वह मुझे क्रियाशील (लीलापरायण), परम चंचल और महान शक्तिशाली बना देता है ।’

राधा बिना अशोभन नित मैं,
रहता केवल कोरा कृष्ण ।
राधा-संग सुशोभित होकर,
बन जाता हूँ मैं ‘श्री’कृष्ण ।।

जहां भी कृष्ण के साथ ‘श्री’ का प्रयोग होता है, वहां श्रीराधा विद्यमान रहती हैं । ‘श्री’ शब्द श्रीराधा को ही व्यक्त करता हैं । श्रीकृष्ण पूर्ण ब्रह्म हैं, राधा ब्रह्म का प्रकाशमण्डल हैं । कृष्ण ब्रह्माण्ड रचियता हैं तो राधा उनकी ऊर्जा हैं । राधा-कृष्ण रूप में ही समस्त ब्रह्माण्ड व्याप्त हो रहा है । श्रीराधा भगवान श्रीकृष्ण की आत्मा हैं, उन्हीं के साथ रमण करने से उनका नाम ‘आत्माराम’ है ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘श्रीराधा मेरी परम आत्मा है, मेरा जीवन है । श्रीराधा से ही प्रेम प्राप्त करके मैं उस प्रेम को अपने प्रेमीभक्तों में बांटता हूँ ।’

श्रीराधा मुझे इतनी अधिक प्रिय है कि–

राधा से भी लगता मुझको अधिक मधुर प्रिय राधा-नाम ।
‘राधा’ शब्द कान पड़ते ही खिल उठती हिय-कली तमाम ।।

नारायण, शिव, ब्रह्मा, लक्ष्मी, दुर्गा, वाणी मेरे रूप ।
प्राण समान सभी प्रिय मेरे, सबका मुझमें भाव अनूप ।।

पर राधा प्राणाधिक मेरी अतिशय, प्रिय प्रियजन सिरमौर ।
राधा-सा कोई न कहीं है मेरा प्राणाधिक प्रिय और ।।

अन्य सभी ये देव, देवियां बसते हैं नित मेरे पास ।
प्रिया राधिका का है मेरे वक्ष:स्थल पर नित्य निवास ।। (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)

श्रीकृष्ण की सेवा से ही श्रीराधा ने सबसे अधिक मनोहर रूप, सौभाग्य, मान, गौरव तथा श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल में स्थान–उनका पत्नीत्व प्राप्त किया है ।

वृन्दावन लीला में लौकिक दृष्टि से तो श्रीकृष्ण ग्यारह वर्ष की अवस्था में ही व्रज का परित्याग करके मथुरा पधार गये थे । इतनी छोटी अवस्था में स्त्रियों के साथ प्रणय की बात कल्पना में ही नहीं आती और अलौकिक जगत् में श्रीराधा-कृष्ण दोनों सर्वदा एक ही हैं । फिर भी भगवान ने ब्रह्माजी को श्रीराधा के दिव्य विग्रह का दर्शन कराने का वरदान दिया था । उसकी पूर्ति के लिए उन्होंने ब्रह्माजी को एकान्त वन में श्रीराधा के दर्शन कराए और वहीं ब्रह्माजी के द्वारा रसराज कृष्ण और महाभावरूपी राधा की विवाहलीला भी सम्पन्न हुई । ये विवाहिता श्रीराधा जी सदैव ही भगवान श्रीकृष्ण के संग रहती हैं । अवश्य ही छिपी रहती हैं । केवल कृष्णकृपा होने पर ही साधक को इस ‘युगलजोड़ी’ के दुर्लभ दर्शन होते हैं ।

इसीलिए संतों ने कहा है—

राधा राधा नाम को सपनेहूँ जो नर लेय ।
ताको मोहन साँवरो रीझि अपनको देय ।।

राधा राधा जे कहे ते न परे भव फन्द ।
जासु कन्ध पर करकमल धरे रहत व्रजचन्द ।।

भक्त कबीर ने ‘राधा’ नाम की महिमा बताते हुए कहा है–

कबिरा धारा अगम की सद्गुरु दई लगाय ।
उलट ताहि पढ़िये सदा स्वामी संग लगाय ।।

अर्थात्–‘धारा’ को उलटा पढ़ने से ‘राधा’ बन जाता है । साथ ही ‘स्वामी संग लगाय’ अर्थात्  राधा के संग उनके स्वामी ‘कृष्ण’ को युक्त करके अर्थात् ‘राधा-कृष्ण, राधा-कृष्ण’ इस प्रकार स्मरण करने से बेड़ा पार हो जाता है ।

श्रीराधा की एक बहुत सुन्दर स्तुति यहां दी जा रही है—

जयति नव नागरी, रूप गुन आगरी,
सर्व सुख सागरी कुँअरि राधा ।

जयति हरि भामिनी, स्याम घन दामिनी,
केलि कलकामिनी, छवि अगाधा ।।

जयति मनमोहनी, करौ दृग बोहनी,
दरस दै सोहनी ! हरौ बाधा ।

जयति रस मूरि री, सुरभि सुर भूरि री,
‘भगवतरसिक’ की प्रान साधा ।।

हे नवनागरी किशोरी श्रीराधे आप रूप और गुणों की खान हैं, सब सुखों की निधि हैं आपकी जय हो ।

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