बचपन से सुनती आ रही हूं, की मां और आप का घर बेटी के लिए पराया होता है। पर जब भी मैं इसका कारण पूछती तो कोई भी इसका कारण मुझे स्पष्ट रूप से नहीं बताता बस एक ही जवाब देकर मुझे चुप कर दिया जाता था। की बेटा ऐसा ही होता है, यही सामाजिक नियम है, पर मैं इस बात से कभी संतुष्ट नहीं हो पाती थी, कि आखिर ऐसा क्यों बेटियों को ही क्यों घर छोड़ कर जाना पड़ता है। शादी तो लड़का और लड़की दोनों ही करते हैं, फिर लड़की ही क्यों और फिर किसी भी शादी में जो वहां पर जब भी विदाई वाले गाने बजते हुए इतने दुखदाई हैं।
लोग उसको सुनकर दुखी हो जाते हैं, और बेटी के विदाई पर मां-बाप फूट कर रोते हैं। पर अगर यह इतना ही दुखदाई है, इतना ही कष्ट हो रहा है, तो आखिर विदाई करना ही क्यों पर मां-बाप बेटी कितनी भी दुखी हो वह खुद भी कितने दुखी हो, पर विदाई किया जा रहे हैं। हमारा समाज इतना बदल गया है। फिर भी यह परंपरा आंख बंद कर माने जा रहा हैं। बॉलीवुड भी आज तक विदाई को लेकर इतनी पुरानी सोंच पर गाने बनाता हैं।
जैसे फैसले जो काटी जाए उगती नहीं है। बेटियां जो ब्याही जाए मुड़ती नहीं है। आंखें क्यों बेटियां नहीं मुड़ सकती हैं। क्या बेटी और फसल की तुलना एक साथ की जा सकती है। क्या इस परंपरा को कभी बदला जा सकता है। आखिर क्या मूल कारण है। भारत में ऐसी मान्यता क्यों है। इसका क्या सांस्कृतिक और सामाजिक कारण है। शायद यह कुछ कारण है जिसका पालन हमारा समाज आज भी कर रहा है।
लिंग पूर्वाग्रह और पितृसत्ता
हमारे पुराने और सामाजिक धाराओं के अनुसार बेटी को पराया धन माना जाता है। बेटियों के लिए माना जाता है, कि उनका अपना कोई जाति नहीं होता उनका विवाह जिस कूल में हो गया वहीं उनके घर वहीं उनकी जाती हो गई यह सोच लड़कियों की सामाजिक स्थिति और उनके घर के प्रति उनकी जिम्मेदारी को काम करती है।
आर्थिक निर्भरता
लड़कियों को जन्म के बाद पिता तथा शादी के बाद पति पर आर्थिक रूप से निर्भर कर दिया जाता है। जिसके कारण लड़कियां अपना कोई भी फैसला लेने और अपना खुद का घर बनाने में असमर्थ होती है। पति के ऊपर आर्थिक निर्भरता मायके और ससुराल के बीच में भावनात्मक और सामाजिक दूरी बना देती हैं।
संपत्ति और विरासत
पुराने कानून और सामाजिक व्यवस्था में लड़कियों को पिता की संपत्ति और विरासत में ना के बराबर अधिकार मिलता है। यह सोच भी कहीं ना कहीं लड़कियों को मायके से दूर और मायके को पराया घर करने पर मजबूर कर देती हैं।
सशक्तिकरण की कमी
इसका एक बड़ा कारण महिला सशक्तिकरण कमी को कहा जा सकता है। जैसे शिक्षा में कमी सामाजिक परंपराएं आर्थिक निर्भरता कानूनी और नीतिगत कमी जिसके कारण लड़कियां अपना फैसला लेने और जीवन में आर्थिक फैसले लेने में सक्षम नहीं हो पाती हैं।
सामाजिक कारण
माता-पिता बेटी की विदाई को एक सामाजिक प्रतिष्ठा भी मानते हैं। क्योंकि विदाई को समाज एक महत्वपूर्ण नियम मानता है जिसके कारण सामाजिक दबाव से मुक्त रहने के लिए भी लोग बेटी को पराए घर में विदा कर देते हैं।
निष्कर्ष
मैं किसी भी धर्म समुदाय सामाजिक नियम के विरुद्ध नहीं हू पर मैं किसी भी चीज को आंख बंद करके मानने के विरुद्ध में जरूर हूं, मेरा मानना है, यह जरूरी है, कि सामाजिक सांस्कृतिक रीति-रिवाज को समझा जाए और नए समाज के अनुसार उन्हें सुधार किया जाए लड़की तथा लड़कों को सामान्य रूप से देखा जाए लड़कियों को शिक्षित तथा आर्थिक रूप से मजबूत बनाना चाहिए। ताकि वह अपने जीवन से जुड़े फैसले स्वयं लेने में सक्षम हो सके इससे शायद महिलाओं पर होने वाले अत्याचार धीरे-धीरे कम होने लगे।