भारत के उड़ीसा राज्य का पुरी क्षेत्र जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्री क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्री जगन्नाथ जी की मुख्य लीला-भूमि है। यहाँ के वैष्णव धर्म की मान्यता है कि राधा और श्रीकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक स्वयं श्री जगन्नाथ जी हैं। इसी प्रतीक के रूप श्री जगन्नाथ से सम्पूर्ण जगत का उद्भव हुआ है। पूर्ण परात्पर भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरम्भ होती है। भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा: मंदिर से बाहर आकर जगत का कल्याण करते हैं भगवान जगन्नाथ श्री पुरुषोत्तम क्षेत्र (जगन्नाथ पुरी उड़ीसा) में होने वाली रथयात्रा और भगवान जगन्नाथ जी की महिमा अवर्णनीय है। इसका उल्लेख विशेष रूप से स्कंद पुराण वैष्णव खंड के अंतर्गत पुरुषोत्तम क्षेत्र माहात्म्य में मिलता है। हालांकि रथयात्रा का वर्णन ब्रह्मपुराणादि अन्य पुराणों में भी है।
सतयुग में जगन्नाथ जी की पहली रथयात्रा निकली थी
स्कंद पुराण के अनुसार, प्रथम मन्वंतर के द्वितीय खंड सतयुग में जगन्नाथ जी की पहली रथयात्रा निकली थी। जब परमेश्वर इस पुरुषोत्तम क्षेत्र में नीलमाधव रूप में उपस्थित थे। उसी स्थान पर जहां यह श्रीमंदिर है। उस समय वह अंतर्धान हो गए। महाराजा इंद्रद्युम्न उस समय इस पृथ्वी के सम्राट थे। उनकी राजधानी अवंती नगरी में थी, जो अब उज्जैन है। जब राजा इंद्रद्युम ने जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां बनवाई तो रानी गुंडिचा ने मूर्तियां बनाते हुए मूर्तिकार विश्वकर्मा और मूर्तियों को देख लिया जिसके चलते मूर्तियां अधूरी ही रह गई तब आकाशवाणी हुई कि भगवान इसी रूप में स्थापित होना चाहते हैं। इसके बाद राजा ने इन्हीं अधूरी मूर्तियों को मंदिर में स्थापित कर दिया। उस वक्त भी आकाशवाणी हुई कि भगवान जगन्नाथ साल में एक बार अपनी जन्मभूमि मथुरा जरूर आएंगे।
महाराजा इंद्रद्युम्न ने जगन्नाथ जी का भव्य मंदिर बनवाया
स्कंदपुराण के उत्कल खंड के अनुसार राजा इंद्रद्युम ने आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन प्रभु के उनकी जन्मभूमि जाने की व्यवस्था की, तभी से यह परंपरा रथयात्रा के रूप में चली आ रही है। महाराजा इंद्रद्युम्न ने जगन्नाथ जी का भव्य मंदिर सतयुग के प्रथम मन्वंतर में निर्माण कराया। वह मंदिर लगभग 1500 फीट ऊंचा है। जिस स्थान पर भगवान का स्थापना हुआ है, वह इस समय का गुंडिचा मंदिर है। श्रीकृष्ण अवतार के समय सुभद्रा के द्वारिका दर्शन की इच्छा पूरी करने के लिए श्रीकृष्ण और बलराम ने अलग-अलग रथों में बैठकर यात्रा की थी। सुभद्रा की नगर यात्रा की स्मृति में ही यह रथयात्रा पुरी में हर साल होती है।
यह भगवान की मौसी का घर है
इस समस्त रथयात्रा के बारे में स्कंद पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में भी बताया गया है। गुंडीचा मंदिर को ‘गुंडीचा बाड़ी’ भी कहते हैं। यह भगवान की मौसी का घर है। आषाढ़ माह के दसवें दिन सभी रथ पुन: मुख्य मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। रथों की वापसी की इस यात्रा की रस्म को बहुड़ा यात्रा कहते हैं। यह रथयात्रा गुंडिचा मंदिर से उस वक्त के श्रीमंदिर तक हुई थी। उसी पुराण में भगवान ने स्वयं कहा है कि साल में एक बार वह अपने श्रीमंदिर से अपने जन्म स्थान मथुरा जाना चाहते हैं, क्योंकि जन्म स्थान उन्हें बहुत प्रिय है और यहां सात दिन रहना चाहते हैं। सात दिन बाद वापस आते हैं, जिसे हम बाहुड़ा यात्रा कहते हैं। फिर भगवान अपने श्रीमंदिर में पुन: विराजमान होते हैं।
दो तिथि में मंदिर के बाहर भगवान देते हैं दर्शन
स्कंद पुराण में कहा गया है कि साल में दो तिथि में मंदिर के बाहर भगवान दर्शन देते हैं। इसमें से एक है आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि , फिर रथयात्रा एवं बाहुड़ा यात्रा के पश्चात भगवान जब अपने घर में आते हैं, वह तिथि आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी होती है। इससे पहले ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन भगवान भक्तों को मंदिर से बाहर दर्शन देते हैं। यहां प्रभु की स्नान यात्रा की जाती है। इसका महत्व है कि सनातन वैदिक धर्म में जो मूल विग्रह हैं, वह स्वयं सिंहासन को त्याग करके मंदिर के बाहर निकलते हैं। यह अनन्य परंपरा है। चूंकि वे जगत के नाथ हैं, इसलिए रथयात्रा में कोई भेदभाव नहीं रहता। सभी धर्म-संप्रदाय के लोग समान रूप से इसमें भाग लेते हैं।