ईश्वर से तो प्रेम सभी करते हैं, नश्वर रूपी इस संसार में कोई भी एसा नहीं जो इश्वर में आस्था न रखता हो, अगर है तो वह पशु के समान है। क्योंकि सच्चा भक्त ही अपने प्रभु के प्रति समर्पित भावना को अपनी आस्था को खुद में सजा के रखता है। किसी से बयां नहीं करना न ही अपने इष्ट से कभी किसी भी प्रकार की शिकायत करता है।
अपने प्रभु से मुक्ति की कामना नहीं करता
सच्चा भक्त ईश्वर से मुक्ति की भी याचना नहीं करता है। मन में मुक्ति की भी लेशमात्र इच्छा शेष रहते हुए वह अपने आपको प्रभु का सच्चा भक्त नहीं कह सकता है। मुक्ति की कामना सात्विक कामना होते हुए भी भक्त मुक्ति का दास बन जाता है। उसमें अभी स्वार्थ बाकी है; अत वह अपने को नैष्ठिक ईश्वर प्रेमी नहीं कह सकता है। अभी तक उसने परिपूर्ण और निशेष समर्पण नहीं किया है। मुक्ति की याचना एक प्रकार का दंभ ही है। क्या कोई सच्चा भक्त यह जानते हुए भी कि भगवान करुणा और दया के सागर हैं, उनसे कुछ याचना कर सकता है?
सच्चा भक्त भगवान से कभी कोई शिकायत नहीं करता
वास्तविक भक्त कभी किसी बात के लिए भगवान से शिकायत नहीं करता। कच्चा भक्त कठिनाई में पड़ते ही भगवान की निंदा करने लगता है कि ‘मैंने पचीस लाख जप किया, प्रतिदिन भागवत का पाठ करता रहा; फिर भी ईश्वर प्रसन्न नहीं हुआ; मेरा दुख दूर नहीं किया। वह अंधा है। मेरी प्रार्थना सुनता नहीं है। भगवान भी कैसा है! उस पर मेरा विश्वास नहीं रहा।’ सच्चे भक्त को दुख तथा कष्ट में भी सुख ही मिलता है। अत वह दुख की ही कामना करता है, जिससे एक क्षण भी भगवान का विस्मरण न हो। उसे यह पूर्ण विश्वास होता है कि भगवान जो कुछ करता है, भले के लिए ही करता है।
पुरी की एक घटना
पुरी की एक घटना है। वहां एक आदमी था, जो भगवान हरि का परम भक्त था तथा उनके हाथों में अपने को पूर्णतया सौंप चुका था। वह एक बार सख्त बीमार हो गया। जब रोग उसके वश में न रहा तो भगवान स्वयं उसके सेवक बन कर कई महीनों तक उसकी परिचर्या करते रहे। प्रारब्ध का नियम अनुल्लंघनीय होता है। उस अचूक और अक्षुण्ण नियम की जकड़ से कोई बच नहीं सकता। भगवान नहीं चाहते थे कि वह भक्त शिरोमणि प्रारब्ध कर्म के भोग के लिए दोबारा जन्म ले। इसीलिए उस व्यक्ति को कुछ समय तक घातक बीमारी भोगनी पड़ी। कर्मक्षय का यह एक प्रकार था; परंतु उस अनन्य भक्त की सेवा भगवान स्वयं करते रहे। भक्तों के पूर्णतया भगवान के अधीन हो जाने पर भगवान अपनी ऐसी असीम करुणा के कारण स्वयं उनके दास बन जाते हैं।
आजकल लोग भूल से तमोगुण या निष्क्रियता को शरणागति मान बैठे
शरणागति का अर्थ वनवास नहीं है और न प्रवृत्ति मात्र से विरति ही है। आजकल लोग भूल से तमोगुण या निष्क्रियता को शरणागति मान बैठे हैं। यह एक बड़ी भूल है। आवश्यकता है आंतरिक समर्पण तथा अहंकार एवं कामना के समूल नाश की। तब वास्तविक भक्ति है। पूर्ण शरणागति में राजसिक चित्त बाधक बनता है। हठ भी शरणागति में बाधक होता है। निम्न प्रकृति अपना प्रभुत्व दिखलाने के लिए पुन-पुन उद्भूत होती है। कामनाओं का पुनरावर्तन होता है। वासनाएं कुछ काल के लिए शमित हो जाती हैं; किंतु वे पुन द्विगुणित शक्ति के साथ प्रकट होती हैं। इन कामनाओं से मनुष्य जहां-तहां भटकता रहता है। ईश्वरीय संभावनाओं पर विश्वास रखें और अपने आपको पूर्णतया प्रभु के हाथों में समर्पित कर दें। उसमें पूरा विश्वास रखें। शांत रहें। तब सारे दुख, चिंताएं, पीड़ाएं और अहंकार नष्ट हो जाएंगे।
‘हे प्रभु! मेरा मनोबल दृढ़ करें,
अनन्य भाव से ईश्वर से प्रार्थना करें— ‘हे प्रभु! मेरा मनोबल दृढ़ करें, जिससे कि मैं समस्त प्रलोभनों का सामना कर सकूं, अपनी इंद्रियों और निम्न प्रकृति को वश में कर सकूं, अपने बुरे स्वभाव को परिवर्तित कर सकूं और अपनी शरणागति को पूर्ण और वास्तविक बना सकूं। मेरे हृदय में आ विराजें। क्षणभर के लिए भी इस स्थान का परित्याग न करें।