भारत में, सरकार ने पहले बड़े पैमाने पर कई सेवाओं को संचालित किया था, जैसे कि स्कूटर और ब्रेड निर्माण, फिल्म रोल और होटल व्यवसाय। लेकिन, समय के साथ निजी कंपनियों ने इस क्षेत्र में प्रवेश किया और अपने प्रतिस्पर्धात्मक दृष्टिकोण से ग्राहक सेवा को बेहतर बनाया। विशेष रूप से बीमा क्षेत्र में, जहां सरकारी और निजी कंपनियां एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करती हैं, हाल के आंकड़े कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठाते हैं।
हाल ही में एक रिपोर्ट में बताया गया कि सरकारी बीमा कंपनी अपने निजी प्रतिस्पर्धियों की तुलना में बहुत कम दावों को खारिज करती है। सरकारी कंपनी ने 500 मामलों में से केवल एक दावा खारिज किया, जबकि उसी क्षेत्र की एक प्रमुख निजी कंपनी ने 35 में से एक दावा खारिज किया। इस आंकड़े को देखकर यह सवाल उठता है कि क्या निजी कंपनियां जानबूझकर दावों को खारिज कर देती हैं, जबकि सरकारी कंपनियों के पास ग्राहकों की वास्तविक जरूरतें पूरी करने की बेहतर क्षमता है।
क्या है ‘Claims Repudiation Ratio’?
‘Claims repudiation ratio’ यानी दावों के खारिज होने का अनुपात एक महत्वपूर्ण संकेतक है, जो यह बताता है कि कितने दावे बीमा कंपनियां स्वीकृत या खारिज करती हैं। कम अनुपात का मतलब है कि कंपनी अपने ग्राहकों के दावों पर ध्यान देती है और उन्हें पूरा करती है, जो ग्राहकों के लिए लाभकारी होता है। दूसरी तरफ, अगर अनुपात अधिक होता है, तो यह संकेत करता है कि कंपनी अपने ग्राहकों से भरी हुई प्रीमियम राशि के बावजूद उनके दावों को खारिज करती है, जिससे ग्राहकों में असंतोष बढ़ सकता है।
भारत में स्वास्थ्य बीमा की स्थिति
भारत में स्वास्थ्य बीमा का एक और बड़ा मुद्दा यह है कि कुछ बीमा कंपनियां 5 में से एक दावा खारिज कर देती हैं, खासकर जब यह दावे अस्पताल में भर्ती होने या सर्जरी के लिए होते हैं। ऐसे दावे परिवारों के लिए आर्थिक रूप से विनाशकारी हो सकते हैं, और इस तरह के निर्णय स्वास्थ्य बीमा उद्योग में ग्राहकों के विश्वास को कम कर सकते हैं।
भारत में स्वास्थ्य बीमा पर 18% जीएसटी: क्या है यह विश्वासघात?
भारत में स्वास्थ्य बीमा पर 18% जीएसटी एक और बडी चिंता का विषय बन चुका है। एक तरफ, ग्राहकों को उच्च प्रीमियम चुकाने पड़ते हैं, वहीं दूसरी ओर सरकार इस पर टैक्स वसूलती है। इस फैसले से लोगों में विश्वासघात की भावना पैदा होती है, क्योंकि स्वास्थ्य बीमा का उद्देश्य लोगों को राहत देना होना चाहिए, न कि आर्थिक बोझ बढ़ाना।
इस संदर्भ में, सरकार के पास जीएसटी को कम करने का एक अवसर था, लेकिन इसे टाल दिया गया और कहा गया कि इस मुद्दे पर और चर्चा की जरूरत है। यह सवाल उठता है कि जब सरकार को छोटी-छोटी चीजों पर निर्णय लेने का समय मिल सकता है जैसे कि पॉपकॉर्न पर टैक्स, तो इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर क्यों नहीं? पॉपकॉर्न पर जीएसटी 5%, पैकेज्ड पॉपकॉर्न पर 12%, और कारमेलाइज्ड पॉपकॉर्न पर 18% तय किया गया है, जबकि स्वास्थ्य बीमा जैसे गंभीर मुद्दों पर चर्चा नहीं हो रही है।
निष्कर्ष: प्राथमिकताओं का पुनर्मूल्यांकन
यह स्थिति हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हमारी असल प्राथमिकताएं क्या हैं। क्या हम पॉपकॉर्न और अन्य तात्कालिक चीजों पर अधिक ध्यान देते हैं, या हमें स्वास्थ्य बीमा जैसी जीवन रक्षक सेवाओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए? बीमा कंपनियों के द्वारा किए गए दावों के खारिज होने का मुद्दा और स्वास्थ्य बीमा पर जीएसटी जैसे फैसले हमें यह सवाल पूछने के लिए प्रेरित करते हैं कि आखिर सरकार और कंपनियां किसे प्राथमिकता देती हैं और किसे नजरअंदाज करती हैं।
हमारी प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए, यह हम पर निर्भर करता है। लेकिन, अगर हमें एक स्वस्थ और सुरक्षित भविष्य की उम्मीद है, तो यह जरूरी है कि हम अपनी प्राथमिकताओं को पुनः निर्धारित करें।